जन्म से मृत्यु तक मौजूद सातवीं महाविद्या धूमावती

वे महाप्रलय के समय मौज़ूद रहती हैं. उनका रंग महाप्रलय के बादलों जैसा है. जब ब्रह्मांड की उम्र ख़त्‍म हो जाती है, काल ख़त्म हो जाता है और स्वयं धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यूँ मानते हैं” ?महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं, माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं और काल तथा अंतरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं. उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चाँद , सितारे रहते हैं. रहता है सिर्फ़ धुआँ और राख- वही चरम ज्ञान है, निराकार- न अच्छा. न बुरा; न शुद्ध, न अशुद्ध; न शुभ, न अशुभ- धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती. वे अकेली रह जाती हैं, सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं. इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं.

यही उनका रहस्य है. वे दरअसल वास्तविकता को जताती हैं जो कड़वी,रूखी और इसलिए अशुभ लगती हैं. लेकिन वहीं से अध्यात्मिक ज्ञान जागता है जो हमें मोक्ष दिलाता है. माँ धूमावती अपने साधक को सारे सांसारिक बंधनों से आज़ाद करती हैं. सांसारिक मोह -माया से विरक्ति दिलाती हैं. यही विरक्त भाव उनके साधकों को अन्य लोगों से अलग-थलग और एकांतवास करने को प्रेरित करता है.

हिंदू धर्म में इसे अध्यात्मिक खोज की चरम स्थिति कहा जाता है. संन्यासी लोग परम संतुष्ट जीव होते हैं-जो भी मिला खा लिया, पहन लिया, जहाँ भी ठहरने को मिला, ठहर लिये. तभी तो धूमावती धुएँ के रूप में हैं-हमेशा अस्थिर, गतिशील और बेचैन. उनका साधक भी बेचैन रहता है.

उन्हें अशुभ माना जाता है क्योंकि बहुधा सच वह नही होता, जैसा कि हम चाहते हैं. वस्तुत: हम एक काल्पनिक संसार में जीते हैं, जिसमें सारी चीज़ें, सारी बातें, सारी घटनायें हमारे मनमाफ़िक होती हैं. जब वैसा नहीं होता, हम दुखी हो जाते हैं. क्योंकि हमारे लिए सब कुछ अच्छा हो एक मायालोक रचता है, जो हमें काम, क्रोध, मद, लोभ और ईर्ष्या के पाश में बाँध देता है. माँ धूमावती बड़े बेदर्दी और रूखेपन से उन पाशों को फाड़ देती हैं और साधक अकेला रहना पसंद करने लगता है. वे तांत्रिक जो धूमावती का रहस्यवाद नहीं समझते शादीशुदा लोगों के लिए धूमावती-साधना करने से मना करते हैं, सधवाओं को भी मना करते हैं.

किंतु वे भूल जाते हैं कि धूमावती सहस्रनाम में यह भी कहा गया है कि वे महिलाओं के बीच निवास करती हैं और संतान प्राप्ति कराती हैं .

इसका क्या तात्पर्य है? वास्तव में वे सहज-सुलभ महाविद्या हैं. बच्चे की प्रसूति से लेकर मनुष्य की मृत्यु तक सिर्फ़ वही खड़ी रहती हैं. उनकी मूर्ति में भी उन्हें हमेशा वरदान देने की मुद्रा में दिखाया जाता है. हालाँकि. उनके चेहरे पर उदासी छायी रहती है. वे महाविद्या तो हैं लेकिन उनका व्यवहार गाँव-टोले की दादी- माँ जैसा है-सभी के लिए मातृत्व से लबालब.

यानी उनका अशुभत्व शुभ की ओर बदलाव का संकेत है. उनके बारे में दो कहानियाँ प्रचलित हैं. आइये, उनके आलोक में हम उनके दैविक व्यक्तित्व की जानकारी लें.

पहली कहानी तो यह है कि जब सती ने पिता के यज्ञ में स्वेच्छा से स्वयं को जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला, उससे धूमावती का जन्म हुआ. इसीलिए वे हमेशा उदास रहती हैं. यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का भौतिक स्वरूप है. सती का जो कुछ बचा रहा- उदास धुआँ.

दूसरी कहानी यह है कि एक बार सती शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थीं. तभी उन्हें ज़ोरों की भूख लगी. उन्होंने शिव से कहा-” मुझे भूख लगी है. मेरे लिए भोजन का प्रबंध करें.” शिव ने कहा-” अभी कोई प्रबंध नहीं हो सकता.” तब सती ने कहा-” ठीक है, मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ.” और वे शिव को ही निगल गयीं. शिव, जो इस जगत के सर्जक हैं, परिपालक हैं.

फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि’ मुझे बाहर निकालो’, तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया. निकालने के बाद शिव ने उन्हें शाप दिया कि ‘ अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी.’

तभी से वे विधवा हैं-अभिशप्त और परित्यक्त.भूख लगना और पति को निगल जाना सांकेतिक है. यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है, जो कभी ख़त्म नही होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है. माँ धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं.

उनका विधवापन वास्तव में स्थितप्रज्ञता है.

कहानी में क्या होता है? पहले तो वे शिव को खा जाती हैं. यानी आत्मरक्षा के लिए वे किसी भी हद तक जा सकती हैं. लेकिन दूसरी ओर वे शिव का शाप भी सहर्ष स्वीकार कर लेती हैं. यानी प्रकृति के, सृष्टि के नियमों को स्वीकार कर लेना चाहिए. स्थितप्रज्ञता अकर्मण्यता नहीं है.

इसलिए माँ धूमावती रोग, शोक आौर दुख की नियंत्रक महाविद्या मानी जाती हैं. वे काफ़ी शक्तिशाली और प्रभावशाली हैं. उनके मंदिर बहुत कम हैं. बनारस के धूमावती मंदिर में लोगों का ताँता लगा रहता है जो अपनी हर प्रकार की मन्नतें पूरी करने के लिए उनके पास गुहार लगाने आते हैं.

वे प्रसन्न होती हैं तो रोगों को दूर कर देती हैं और क्रुद्ध होती हैं तो समस्त सुखों और कामनाओं का नाश कर देती हैं. उनकी शरण में गये लोगों की विपत्ति दूर हो जाती है, वे संपन्न होकर दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं. ऋग्वेद के रात्रि सूक्त में उन्हें सुतरा कहा गया है-सुखपूर्वक तरने योग्य. ऋण, अभाव और संकट दूर कर धन और सुख देने के कारण उन्हें ‘भूति’‘ कहा गया है.-उष ऋणेक यातय(ऋग्वेद,१०.१२७.७).

धूमावती साधना

तंत्रोक्त धूमावती मंत्र साधना.

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |

सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||

“हे आदि शक्ति धूम्र रूपा माँ धूमावती आप पूर्णता के साथ सुमेधा और सत्य के युग्म मार्ग द्वारा साधक को सौभाग्य का दान करके सर्वदा अपनी असीम करुणा और ममता का परिचय देती हो….

आपके श्री चरणों में मेरा नमस्कार है |”

धूम्रासपर्या कल्प पद्धति” से उद्धृत इस श्लोक से ही माँ धूमावती की असीमता और विराटता को हम सहज ही समझ सकते हैं.बहुधा साधक जब जिज्ञासु की अवस्था में होता है तब वो भ्रांतियों का शिकार होता है,अब ऐसे में या तो वो मार्ग से भटककर पतित हो जाता है,या फिर सद्गुरु के श्री चरण कमलों का आश्रय लेकर सत्य से ना सिर्फ परिचित हो जाता है अपितु उस पर निर्बाध गति करते हुए अपने अभीष्ट लक्ष्य को भी प्राप्त कर लेता है

माँ धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यों मानते हैं” ?

माँ का कोई भी रूप अहितकर होता ही नहीं है . महोदधि तन्त्र में कहा जाता है कि हर प्रकार की दरिद्रता का नाश करने के लिए ,तन्त्र मंत्र , जादू टोना , बुरी नजर , भूत,प्रेत , सभी का शमन करने के लिए ,भय से मुक्ति के लिए , सभी रोग शोक समाप्ति के लिए , अभय प्राप्ति के लिए , जीवन की सुरक्षा के लिए , बाधा मुक्ति , शत्रु को जड़- मूल से समाप्त करने के लिए धूमावती साधना वरदान है.

देवी धूमावती के बारे में कहा जाता है कि वे जन्म से ले कर मृत्यु तक साधक की देख भाल करने वाली महाविद्या है. वेदों के काल की विवेचना से पता चलता है कि महा प्रलय काल के समय वे मौजूद रहती हैं .उन का रंग महप्रलय काल के बादलों जैसा ही है .जब ब्रह्मांड की उम्र ख़त्म हो जाती है , काल समाप्त हो जाता है और स्वयं महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं ,तब भी माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं,और काल और अन्तरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं.

उस समय न तो धरती, न ही सूरज , चाँद , सितारे , रहते हैं। रहता है तो सिर्फ धुआं और राख, – वही चार्म ज्ञान है .निराकार – न अच्छा , न बुरा , न शुद्ध , न अशुद्ध , न शुभ , न ही अशुभ धुएं के रूप में अकेली माँ धूमावती रह जाती है . सभी उन का साथ छोड़ जाते हैं , इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले इन्हें अशुभ मानते हैं.

धूमावती रहस्य तंत्र

यही उन का रहस्य है कि वो वास्तविकता को दिखाती हैं जो सदैव कड़वी और रुखी होती है इसलिए अशुभ लगती है .वे अपने साधकों को सांसारिक बन्धनों से आज़ाद करती हैं , सांसारिक मोह माया से मुक्ति दिलाती हैं.

ये विरक्ति दिलाती हैं , जिस से यह विरक्ति का भाव उन के साधकों को अन्य लोगों से अलग थलग रखता है .वे एकांतवास करने को प्रेरित करती हैं.

महाविद्याओं का कोई भी रूप…फिर वो चाहे महाकाली हों,तारा हों या कमला हों…अपने आप में पूर्ण होता है .ये सभी उसी परा शक्ति आद्यशक्ति के ही तो विभिन्न रूप हैं.जब वो स्वयं अपनी कल्पना मात्र से इस सृष्टि का सृजन,पालन और संहार कर सकती हैं तो उसी परम पूर्ण के ये महाविद्या रुपी रूप कैसे अपूर्ण होंगे .इनमें भी तो निश्चित ही वही विशिष्टता होंगी ही .

महाविद्याओं के पृथक पृथक १० रूपों को उनके जिन गुणों के कारण पूजा जाता है ,वास्तव में वो उन्हें सामान्य ना होने देने की गुप्तता ही है,जो पुरातन काल से सिद्धों और साधकों की परंपरा में चलती चली आ रही है .

जब कोई साधक गुरु के संरक्षण में पूर्ण समर्पण के साथ साधना के लिए जाता है तो परीक्षा के बाद उसे इन शक्तियों की ब्रह्माण्डीयता से परिचित कराया जाता है . और तब सभी कुंजियाँ उसके हाथ में सौंप दी जाती हैं और तभी उसे ज्ञात होता है कि सभी महाविद्याएं सर्व गुणों से परिपूर्ण हैं और वे अपने साधक को सब कुछ देने का सामर्थ्य रखती हैं .

अर्थात् यदि माँ कमला धन प्रदान करने वाली शक्ति के रूप में साध्य हैं तो उनके कई गोपनीय रूप शत्रु मर्दन और ज्ञान से आपूरित करने वाले भी हैं . अब ये तो गुरु पर निर्भर करता है कि वो कब इन तथ्यों को अपने शिष्य को सौंपता है और ये शिष्य पर है कि वो अपने समर्पण से कैसे सद्गुरु के ह्रदय को जीतकर उनसे इन कुंजियों को प्राप्त करता है .

वास्तव में सत,रज और तम गुणों से युक्त ध्यान, दिशा, वस्त्र, काल और विधि पर ही उस शक्तियों के गुण परिवर्तन की क्रिया आधारित होती है .

किसी भी महाविद्या को पूर्ण रूप से सिद्ध कर लेने के लिए साधक को एक अलग ही जीवन चर्या,आहार विहार और खान-पान का आश्रय लेना पड़ता है….किन्तु जहाँ मात्र उनकी कृपा प्राप्त करनी हो तो ये नियम थोड़े सरल हो जाते हैं और ये हम सब जानते हैं कि विगलित कंठ से माँ को पुकारने पर वे आती ही हैं .

माँ धूमावती के साथ भी ऐसा ही है,जन सामान्य या सामान्य साधक उन्हें मात्र अलक्ष्मी और विनाश की देवी ही मानते हैं .

किन्तु जिनकी प्रज्ञा का जागरण हुआ हो वे जानते हैं कि आखिर इस महाविद्या का बाह्य परिवेश यदि इतना वृद्ध बनाया गया है तो क्या वो वृद्ध दादी या नानी माँ का परिवेश उन्हीं जैसी वात्सल्यता से युक्त नहीं होगा ?

धूमावती सौभाग्यदात्री कल्प एक ऐसा ही प्रयोग है जिसे मात्र धूमावती दिवस,जयंती या किसी भी रविवार को एक दिन करने पर ही न सिर्फ जीवन में पूर्ण अनुकूलता प्राप्त हो जाती है अपितु शत्रुओं से मुक्ति,आर्थिक उन्नति,कार्य क्षेत्र में सफलता, प्रभावकारी व्यक्तित्व और कुण्डलिनी जागरण जैसे लाभ भी प्राप्त होते हैं .

विनाश और संहार के कथनों से परे इन गुणों को भी हम इन्हीं की साधना से स्पष्ट रूप से देख सकते हैं .

यह साधना रात्रि में ही १० बजे के बाद की जाती है . स्नान कर बगैर तौलिए से शरीर पोंछे या तो वैसे ही शरीर को सुखा लिया जाये या धोती के ऊपर धारण किये जाने वाले अंग वस्त्र से हलके हल्के शरीर सुखा लिया जाये और साधना के निमित्त सफ़ेद वस्त्र या बहुत हल्का पीला वस्त्र धारण कर लिया जाये .

ऊपर का अंगवस्त्र भी सफ़ेद या हल्का पीला ही होगा.धोती और अंगवस्त्र के अतिरिक्त किसी अंतर्वस्त्र का प्रयोग नहीं किया जाये .साधक-साधिका दोनों के लिए यही नियम है .महिलाएं साड़ी के रंग का ही ब्लाउज पहन सकती हैं .

आसन सफ़ेद होगा.. दिशा दक्षिण होगी . गुरु और गणपति पूजन के बाद एक पृथक बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर एक लोहे या स्टील के पात्र में “धूं” का अंकन काजल से करके उसके ऊपर एक सुपारी स्थापित कर दी जाये और हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मंत्र का ११ बार उच्चारण करे –

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |

सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||

इसके बाद उस सुपारी को माँ धूमावती का रूप मानते हुए,अक्षत,काजल,भस्म,काली मिर्च और तेल के दीपक से और उबाली हुई उड़द और फल का नैवेद्य द्वारा उनका पूजन करे. तत्पश्चात उस पात्र के दाहिने अर्थात अपने बायीं और एक मिटटी या लोहे का छोटा पात्र स्थापित कर उसमें सफ़ेद तिलों की ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक दूसरी सुपारी स्थापित करे,और निम्न ध्यान मंत्र का पांच बार उच्चारण करते हुए माँ धूमावती के भैरव अघोर रुद्र का ध्यान करे –

त्रिपाद हस्त नयनं नीलांजनं चयोपमं,

शूलासि सूची हस्तं च घोर दंष्ट्राटट् हासिनम् ||

और उस सुपारी का पूजन,तिल,अक्षत,धूप-दीप तथा गुड़ से करे तथा काले तिल डालते हुए ‘ॐ अघोर रुद्राय नमः’ मंत्र का २१ बार उच्चारण करे .इसके बाद बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से निम्न मंत्र का पांच बार उच्चारण करते हुए पूरे शरीर पर छिड़कें –

धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी |

ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ||

कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके |

सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ||

सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः |

सौभाग्यमयतं प्राप्य जाते देवितुरं ययौ ||

इसके बाद जिस थाली में माँ धूमावती की स्थापना की थी,उस सुपारी को अक्षत और काली मिर्च मिलकर निम्न मंत्र की आवृत्ति ११ बार कीजिये. अर्थात क्रम से हर मंत्र ११-११ बार बोलते हुए अक्षत मिश्रित काली मिर्च डालते रहें .

भद्रकाल्यै नमः

ॐ महाकाल्यै नमः

ॐ डमरूवाद्यकारिणीदेव्यै नमः

ॐ स्फारितनयनादेव्यै नमः

ॐ कटंकितहासिन्यै नमः

ॐ धूमावत्यै नमः

ॐ जगतकर्त्री नमः

ॐ शूर्पहस्तायै नमः

इसके बाद निम्न मंत्र का जप रुद्राक्ष माला से २१,५१ , १२५ माला करें, यथासंभव एक बार में ही ये जप हो सके तो अतिउत्तम,अब मंत्र जाप प्रारंभ करे.

मंत्र:-

ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट् ||

OM DHOOM DHOOM DHOOMAVATI PHAT ||

मंत्र जप के बाद मिटटी या लोहे के हवन कुंड में लकड़ी जलाकर १०८ बार घी तथा काली मिर्च के द्वारा आहुति डाल दें .आहुति के दौरान ही आपको आपके आस पास एक तीव्रता का अनुभव हो सकता है और पूर्णाहुति के साथ अचानक मानो सब कुछ शांत हो जाता है…

इसके बाद आप पुनः स्नान कर ही सोने के लिए जाएं और दूसरे दिन सुबह आप सभी सामग्री को बाजोट पर बिछे वस्त्र के साथ ही विसर्जित कर दें और जप माला को कम से कम २४ घंटे नमक मिश्रित जल में डुबाकर रखें और फिर साफ़ जल से धोकर और उसका पूजन कर अन्य कार्यों में प्रयोग करें . इस प्रयोग को करने पर स्वयं ही अनुभव हो जाएगा कि आपने किया क्या है, और कैसे परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हो जाती है ये तो स्वयं अनुभव करने वाली बात है….

देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी तो देवी का कोई संगी नहीं है .

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