दश महाविद्या क्या हैं ?


आचार्य पंकज प्रसून

हम कौन हैं? हम कहां से आये हैं? मृत्यु के बाद कहां चले  जायेंगे ? अनादि काल से इंसान इन सवालों के जवाब ढूंढता आया है.ये सवाल उसके अपने अस्तित्व से जुड़े हुए हैं इसलिये  अज्ञात अतीत से ही इनकी जानकारी हासिल करने के लिए वह उद्विग्न रहा है.उसकी इसी बेचैनी ने कालांतर में साहित्य,कला, संगीत, दर्शन और विज्ञान को जन्म दिया.

ये सवाल ही हज़ारों साल पहले परमेष्टि प्रजापति नामक ऋषि को बेचैन कर रहे थे. उनके अध्ययन और चिंतन के फलस्वरूप जन्म हुआ ऋग्वेद  के नासदीय सूक्त (१२९वाँ सूक्त,१०वाँ मंडल) का-“तब कुछ नहीं था, आकाश, अंतरिक्ष, उसके  आगे कुछ भी, मृत्यु थी और इसलिये कुछ भी अमर नहीं था…… था तो निवीड, निःशब्द अंधकार, एक समुद्र, जिसमे प्रकाश नहीं था और फ़िर महाताप के बल से वह आया…..” 

इसके बाद हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋग्वेद १०.१२१) ने बताया-प्रारंभ में ईश्वर ने सर्जक के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त किया- हिरण्य गर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसित. हिरण्यगर्भ यानी सुनहरा गर्भ, जिसके अंदर धरती, सूरज, चांद- सितारे, आकाश गंगाएँ, ब्रह्मांडो के गोलक समाये थे और जिसे बाहर से दस तरह के गुणों ने घेर रखा था. वायु पुराण के अनुसार हज़ार साल बाद वायु ने इसे तोड़ दिया.

तन्त्र कहता है कि इस आदि पिंड में महाकाली, महाशक्ति महाकाल के साथ मौज़ूद थी. महाकाल यानी शिव जो निष्क्रिय थे, जिनका न तो भूत था और न ही भविष्य. था तो सिर्फ़ वर्तमान. इसलिए उन्हें समय कहा जाता है. वह शिव और शक्ति से भरा महाबिन्दु अपनी धुरी पर घूम रहा था. भयानक था वह परिदृश्य-“निश्क्रान्ता बिंदुमध्ये तु लौलीभूतन्तु तत्समम्. “( कौलज्ञा निर्णय– मत्स्येन्द्रनाथ )

शक्ति ने सोचा एकोअस्य बहुस्यामि. फिर हुआ महानाद-शिव और शक्ति के अन्तर्सम्बन्ध से उत्पन्न. योगिनी तंत्र उसके बाद की घटनाओं को एक कथा का रूप देते हुए कहता है कि उस शून्य ब्रह्मांड मंडल में महाकाली ने सृजननृत्य किया जिसके दौरान उनकी ठोड़ी से पसीने की दो बूँदें टपक कर गिरीं, जिनसे ब्रह्मा और विष्णु का जन्म हुआ. दोनों भय से काँपने लगे और उनकी नासिका रन्ध्र से निकल कर बाहर गिर पड़े. इसके बाद ब्रह्मा उनकी पिंगला और विष्णु उनकी इडा नाड़ी में समाहित हो गये. दोनों ने कुल मिला कर पंद्रह करोड़ वर्षों तक उनकी आराधना की. काली प्रसन्न हुईं और ब्रह्मा को सृजन तथा विष्णु को सृजित जीव-जंतुओं के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी दी.

अब ज़रा देखिए कि तंत्र की उपरोक्त बातें महज कोरी-कल्पना नहीं, विज्ञान ने किस प्रकार और कैसे उन पर प्रासंगिकता की मुहर लगा दी है.

खगोल गणित और भौतिकी के अनुसार पूरा ब्रह्मांड प्राथमिक ध्वनियों या स्पंदनों के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है. पदार्थ और प्रतिपदार्थ के सायुज्यन से प्रकाश और गति का जन्म हुआ.

सन् १९२७ में जौर्जी लीमाइतर ने प्राथमिक परमाणु की अवधारणा दी. उसके बाद १९३० से १९५० के बीच आइंस्टाइन के सापेक्षता वाद के आधार पर आलिसांदेर फ्राइदमान तथा एडविन ह्बल ने फैलते हुए ब्रह्मांड के बारे में बताया. महाविस्फोट का सिद्धांत आया और अनुमान लगाया गया कि एक खरब सैंतीस अरब़ वर्ष पहले सारा ब्रह्मांड बिंदु रूप में था. सन् १९४० में रॉल्फ ऐल्फर ने इसका नाम रखा यलेम. .

 आइंस्टाइन ने अपने सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के आधार पर ब्रह्मांड का एक नमूना तय्यार किया और दावा किया कि गुरुत्वाकर्षण के कारण ब्रह्मांड वक्राकार है इसलिये फैल या सिकुड सकता है. बाद में हबल की खोजों के बाद उन्होनें अपने मूल निष्कर्षों को खारिज़ किया और कहा कि वह उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी.उस निष्कर्ष में कल्पना का पुट ज़्यादा था. संशोधित करके उन्‍होंने कहा कि ब्रह्मांड स्थिर और अचल है.

 लेकिन आइंस्टाइन की स्वीकारोक्त भूल वास्‍तव में ब्रह्मांड का राज़ थी. इस वर्ष (सन् २०११) के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता सॉल पर्लमटर, ब्रायन श्मिट और राइस ने सुदूर सुपर नोवी के अध्ययन के बाद साबित कर दिया कि ब्रह्मांड गतिशील है और फैलता ही जा रहा है. आइंस्टाइन की भूल भी सही निकली.

 तंत्र के अनुसार  महाशून्य स्थित बिंदु में इस स्पंदन से वायु प्रकट हुआ जिसने अग्नि को जन्म दिया. अग्नि ने जल को तथा जल ने धरती को प्रकट किया. अग्नि ही आदित्य है. वही हमारे शरीर में स्थित प्राण है.

 ब्रह्मांड पिरामिड आकार के स्पंदन कर रहा है. उसके विभिन्न स्तरों पर भाँति-भाँति के विश्व विराजमान हैं. हर स्तर का अपना एक निश्चित स्पंदन और चेतना है. इस महाविशाल पिरामिड के शिखर पर दश महाविदयाएँ रहती हैं जो ब्रह्मांड का सृजन, व्यवस्था और अवशोषण करती हैं. ये परम ब्रह्मांडीय माँ के व्यक्तित्व के ही दस पहलू हैं.

 वसुगुप्त ने इस दिव्य स्पंदन पर स्पंद कारिका नामक पुस्तक में लिखा है कि काल के रेखीय क्षणों में यह अनुक्रम से स्वतंत्र रहता है लेकिन काल के विभिन्न पहलुओं में इसकी कौंध आती-जाती नज़र आती है.

 हालाँकि वास्तव में ऐसा नहीं होता. यही माया है. शक्ति की इस महान ताक़त को सिर्फ़ तांत्रिक रहस्यवादी ही महसूस कर पाते हैं . स्पंद कारिका  में इसे शक्ति-चक्र कहा गया है. दैविक स्रोत से उद्भूत मातृ -शक्ति का व्यापक चक्र.

तंत्र के अनुसार सृष्टि-क्रम कुछ इस प्रकार है: पहले परर्पिंड यानी संयोग (शिव और शक्ति का मिलन, फिर त्रिगुणात्मक आदि-पिंड और तब नीले रंग का महाप्रकाश, धूम्र रंग का महावायु,,रक्तवर्ण का महातेज, श्वेत वर्ण,  का महासलिल, पीतवर्ण की महापृथ्वी, पांच महातत्वों से उत्पत्ति, महासाकार पिंड, भैरव, श्रीकंठ , सदाशिव, ईश्वर, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा, नर-नारी, प्राकृतिक पिंड (नर-नारी संयोग) और पुरुष तथा नारी का जन्म.

इस प्रकार अग्नि, सूर्य और सोम मिलकर सृजन का त्रिभुज यानी योनि बनाते हैं. और यूं शून्य तथा अंधकार से सृजन की कहानी शुरू होती है. शिव से पृथ्वी तक ३६ तत्त्व हैं जो आत्मा से जुड़ कर सजीव और निर्जीव जगत का निर्माण करते हैं.

प्रलय काल में पृथ्वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में और वायु आकाश में लीन होकर पुनः बिंदु रूप में आ जाती है. यही संकोच और विस्तार प्रलय और सृजन है तथा प्राणि-मात्र में जन्म और मृत्यु है.

बिंदु रूप ब्रह्म वामाशक्ति है क्योंकि वही विश्व का वमन (यानी उत्पन्न) करती है-

ब्रह्म बिंदुर महेशानि वामा शक्तिर्निगते

विश्वँ वमति यस्मात्तद्वामेयम प्रकीर्तिता

( ज्ञानार्णव तंत्र, प्रथम पटल-१४)

 पराशक्ति नित्य तत्त्व है जो हमेशा वर्तमान स्थिति में रहती और विश्व का संचालन करती है. वही शक्ति आद्य यानी ब्रह्म की जन्मदात्री है. वही जगत का मूल कारण,निमित्ति और उपादान भी है-ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत किंच जगत्याम्.जगत (यजुर्वेद ४.१) वह  शक्ति स्वतंत्र है- चिति: स्वतन्त्रा विश्वसिद्धि हेतु:.(प्रत्त्यभिज्ञा सूत्र). जगत् निर्माण के लिये चिति शक्ति स्वतंत्र है. शरीर स्थित सहस्रार पद्म में चिति शक्ति रहती है. उसे ही मणिद्वीप कहा जाता है.

 अंतरिक्ष में मौज़ूद सूर्य ही जीव-जगत में प्राण के रूप में विराजमान रहता है; आदित्यो वै प्राणो. इसलिये सूर्य को प्रसविता कहते हैं. सूर्य हैं प्रत्यक्ष देवता. सूर्य देता और लेता है. जो अन्न हम खाते हैं वह  शरीर के अंदर जाते ही अपनी सत्ता खो बैठता है. रह जाती है अन्नाद सत्ता जो अग्नि के रूप में होती है, जिसे वाक कहते हैं., इस अग्नि के गर्भ में सारी दुनिया समायी है. वह  वामा में प्रसूत होती है, ज्येष्ठा में बढ़ती है और वैखरी में समाप्त हो जाती है.सोम को विराट दिशा में वाक प्रकाशित करता है. विराट का अर्थ होता है दश. इन दसों दिशाओं के स्थिरीकरण, नियंत्रण और प्रशासन को दश महाविद्या कहा जाता है.

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