श्री गुर्वष्टकम् (गुरु अष्टकम्)


शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 1 ॥

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 2 ॥

षड्क्षङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 3 ॥

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 4 ॥

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 6 ॥

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 7 ॥

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 8 ॥

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही ।
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसञ्ज्ञं
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥ 9

मां बगलामुखी

वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बगलामुखी जयंती पूरे विश्व में मनाई जाती है

।इस दिन विधिवत पूजन करने से विशेष लाभ प्राप्त होता है।
इस दिन मां बगलामुखी की उपासना करने का फल विशेष होता है। बगलामुखी देवी दसमहाविद्या में आठवीं महाविद्या के नाम से प्रचलित है। वैदिक शब्द में वल्गा कहा गया है। जो बाद में अपभ्रंश होकर बगुला नाम से प्रचलित हो गया।
बगलामुखी शत्रु संहार के लिए विशेष है।
शत्रु व राजकीय विवाद मुकदमे बाजी में यह विद्या शीघ्र सिद्धिप्रदा है। शत्रुओं द्वारा किया गया कृत्य अभिचार प्रयोग प्रेतआदि का उपद्रव हो तो तुरंत मंत्र अनुष्ठान प्रयोग करना चाहिए।
इनके मंत्रों का अनुष्ठान में सावधानी बरतनी चाहिए अन्यथा हानि संभव है।गुरु आदेश और मंत्र दीक्षित के बिना मंत्र का अनुष्ठान शास्त्रोक्त वर्जित है।
सिद्ध विद्याओं में इनका पहला स्थान है ।लक्ष्मी प्राप्ति व शत्रु पर विजय की कामना मंत्रों द्वारा प्रयोग करने पर सफलता पायी जा सकती है।भगवती का एक नाम पीताम्बरा भी है।
भगवती की उपासना में पीले वस्त्र पहनकर पीले आसन पर बैठकर गंधार्चन में केसर हल्दी का प्रयोग करें।हरिद्रा माला का उपयोग करे।इनके प्रिय बंधूक पुष्प द्वारा अगर अर्चन किया जाए तो माँ शीघ्र प्रसन्न होती है।
इनकी उपासना और जब नियम पूर्वक करना चाहिए अन्यथा हानि भी संभव है अलग-अलग कामना हेतु अलग-अलग मंत्रों का विधान दिया गया है। विधिपूर्वक इन का अनुष्ठान करने से शत-प्रतिशत समस्या का समाधान संभव है ।कुछ विशेष मंत्रों के प्रयोग काफी अनुभूत हैं ।इससे प्रेत आदि के उपद्रव दूर होते हैं ।बंद होने वाले व्यापार पुनः चालू व स्थिर बुद्धि को प्राप्त करते हैं। शत्रु नाश व अर्थ की प्राप्ति दोनों ही फल मिलते हैं।
कोर्ट कचहरी में मुकदमेबाजी हो या पारिवारिक कलह और अशांति हो तो भगवती की उपासना से विभिन्न प्रकार के मंत्र प्रयोग से निश्चित रूप से सफलता प्राप्त की जाती है।
माना जाता है कि एक बार समुद्र में राक्षस ने बहुत बड़ा प्रलय मचाया। विष्णु उसका संहार नहीं कर सके तो उन्होंने हरिद्रा सरोवर के समीप महात्रिपुरसुंदरी की आराधना की तो श्रीविद्या ने ही बगुला रूप में प्रकट होकर राक्षस का वध किया भगवती का आविर्भाव मंगलवार चतुर्दशी को अर्धरात्रि को हुआ है उस रात्रि को वीररात्रि कही जाती है।
अगर सच्चे मन और उत्तम विचार को मन मे रखकर संकल्पित रूप से पूर्ण समर्पण के साथ अगर भगवती का आराधना की जाए तो निश्चित रूप से सम्स्या का निवारण होता है।

A request

Please send by email on our following email address–

The readers who follow our instructions and meditate accordingly may write to us about their experiences.We would publish them on this website to help newcomers acquaint with the power of dush mahavidya and gaining the favour and blessings of the Supreme Their identity will not be disclosed.

dushmahavidyaupasna@gmail.com

Read the rest of this entry

Dakini Invoking Mantra Experiment

https://www.prophet666.com/2016/02/dakini-invoking-mantra-experiment.html?m=1

Kurukulla: the “Diva” Dakini of enlightened magic; the enchantress transforms seduction into ‘the cause of wisdom’ – Buddha Weekly: Buddhist Practices, Mindfulness, Meditation

https://buddhaweekly.com/kurukulla-the-diva-dakini-of-enlightened-magic-the-enchantress-transforms-seduction-into-the-cause-of-wisdom/

Forms of Dakini

Ḍākinī (डाकिनी).—The Ḍākinīs, Rākiṇīs, Lākinīs, [Kākinīs?] Śākinīs and Hākinīs are mentioned as the female energies (Śaktis) of the Tantrik deities respectively called Ḍāmeśvaranātha, Rāmeśvaranātha, Lāmeśvaranātha, Kākeśvaranātha, Śāmeśvaranātha, and Hāmeśvaranātha who together with their Śaktis, form mystic groups designated under the mnemonic ḍa ra la ka śa ha. The Lord of Lāmā is here called Lāmeśvara.

डाकिनी कौन सी शक्ति है

डाकिनी कौन होती है ?

तंत्र जगत में डाकिनी का नाम अति प्रचलित है। सामान्यजन भी इस नाम से परिचित हैं ।
डाकिनी नाम आते ही एक उग्र स्वरुप की भावना मष्तिष्क में उत्पन्न होती है ।वास्तव में यह ऊर्जा का एक अति उग्र स्वरुप है अपने सभी रूपों में ।
डाकिनी की कई परिभाषाएं हैं ।डाकिनी का अर्थ है –ऐसी शक्ति जो “डाक ले जाए “।
यह ध्यान रखने लायक बात है कि प्राचीनकाल से और आज भी पूर्व के देहातों में डाक ले जाने का अर्थ है -चेतना का किसी भाव की आंधी में पड़कर चकराने लगना और सोचने समझने की क्षमता का लुप्त हो जाना ।
यह शक्ति मूलाधार के शिवलिंग का भी मूलाधार है । तंत्र में काली को भी डाकिनी कहा जाता है यद्यपि डाकिनी काली की शक्ति के अंतर्गत आने वाली एक अति उग्र शक्ति है ।
ये काली की उग्रता का प्रतिनिधित्व करती हैं ।इनका स्थान मूलाधार के ठीक बीच में माना जाता है ।यह प्रकृति की सर्वाधिक उग्र शक्ति है ।यह समस्त विध्वंस और विनाश की मूल हैं । इन्हीं के कारण काली को अति उग्र देवी कहा जाता है जबकि काली सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति की भी मूल देवी हैं ।
तंत्र में डाकिनी की साधना स्वतंत्र रूप से भी होती है और माना जाता है यदि डाकिनी सिद्ध हो जाए तो काली की सिद्धि आसान हो जाती है । काली की सिद्धि अर्थात मूलाधार की सिद्धि हो जाए तो कम प्रयासों में अन्य चक्र अथवा अन्य देवी-देवता आसानी से सिद्ध हो सकते हैं ।
इस प्रकार सर्वाधिक कठिन डाकिनी नामक काली की शक्ति की सिद्धि ही है ।डाकिनी की साधना अघोरपंथी तांत्रिकों की प्रसिद्ध साधना है ।
हमारे अन्दर क्रूरता ,क्रोध ,अतिशय हिंसात्मक भाव ,नख और बाल आदि की उत्पत्ति डाकिनी की शक्ति से अर्थात तरंगों से होती है ।
डाकिनी की सिद्धि पर व्यक्ति में भूत-भविष्य-वर्त्तमान जानने और किसी को भी नियंत्रित और वशीभूत करने की क्षमता आ जाती है । साधक की रक्षा करती हैं और मार्गदर्शन भी। डाकिनी साधक के सामने लगभग काली के ही रूप में अवतरित होती है और उनका स्वरुप उग्र हो सकता है।
इस रूप में माधुर्य-कोमलता का अभाव होता है ।सिद्धि के समय ये पहले साधक को डराती हैं ,फिर तरह तरह के मोहक रूपों में भोग के लिए प्रेरित करती है।यद्यपि मूल रूप से यह उग्र और क्रूर शक्ति है ,भ्रम उत्पन्न और लालच के लिए ऐसा कर सकती है ।
इनके भय और प्रलोभन से बच गए तो सिद्ध हो सकती है ।मस्तिष्क को शून्यकर इसके भाव में डूबे बिना यह सिद्ध नहीं होती ।इसमें और काली में व्यावहारिक अंतर है जबकि यह काली के अंतर्गत ही आती हैं । इन्हें जगाना पड़ता है जबकि काली एक जाग्रत देवी हैं ।डाकिनी की साधना में कामभाव की पूर्णतया वर्जना होती है ।

तंत्र जगत में एक और डाकिनी की साधना होती है जो अधिकतर वाममार्ग में साधित होती है ।यह डाकिनी प्रकृति [पृथ्वी] की ऋणात्मक ऊर्जा से उत्पन्न एक स्थायी गुण है और निश्चित आकृति में दिखाई देती है |इसका स्वरुप सुन्दर और मोहक होता है ।यह पृथ्वी पर स्वतंत्र शक्ति के रूप में पाई जाती है |इसकी साधना अघोरियों और कापालिकों में अति प्रचलित है ।
यह बहुत शक्तिशाली शक्ति है और सिद्ध हो जाने पर साधक की राह बेहद आसान हो जाती है ।यद्यपि साधना में थोड़ी सी चूक होने अथवा साधक के साधना समय में थोडा सा भी कमजोर पड़ने पर उसे ख़त्म कर देती है।
यह भूत-प्रेत-पिशाच-ब्रह्म-जिन्न आदि उन्नत शक्ति होती है ।कभी-कभी खुद किसी पर कृपा कर सकती है और कभी किसी पर स्वयमेव आसक्त भी हो सकती है।

तंत्र कहानियों में इसके किन्हीं व्यक्तियों पर आसक्त होने ,विवाह करने और संतान तक उत्पन्न करने की कथाएं मिलती हैं ।
इसका स्वरुप एक सुन्दर ,गौरवर्णीय ,तीखे नाक नक्श [नाक कुछ लम्बी ]वाली युवती की होती है जो काले कपड़े में ही अधिकतर दीखती है ।
काशी के तंत्र जगत में इसकी साधना ,विचरण और प्रभाव का विवरण मिलता है ।
इस शक्ति को केवल वशीभूत किया जा सकता है ,इसको नष्ट नहीं किया जा सकता ,यह सदैव व्याप्त रहने वाली शक्ति है जो व्यक्ति विशेष के लिए लाभप्रद भी हो सकती है और हानिकारक भी ।
इसे नकारात्मक नहीं कहा जा सकता अपितु यह ऋणात्मक शक्ति ही होती है यद्यपि स्वयमेव भी प्रतिक्रिया कर सकती है ।सामान्यतया यह नदी-सरोवर के किनारों , घाटों , श्मशानों, तंत्र पीठों ,एकांत साधना स्थलों आदि पर विचरण कर सकती हैं ,जो उजाले की बजाय अँधेरे में होना पसंद करती हैं |इस डाकिनी और मूलाधार की डाकिनी में अंतर होता है ।

मूलाधार की डाकिनी व्यक्ति के मूलाधार से जुड़ी होती है ,कुंडलिनी सुप्त तो वह भी सुप्त ।तंत्र मार्ग से कुंडलिनी जगाने की कोशिश पर सबसे पहले इसका ही जागरण होता है ।इसकी साधना स्वतंत्र रूप से भी होती है और कुंडलिनी साधना के अलावा भी यह साधित होती है ।कुंडलिनी की डाकिनी शक्ति की साधना पर प्रकृति की डाकिनी का आकर्षण हो सकता है और वह उपस्थित हो सकती है।
यद्यपि प्रकृति में पाई जाने वाली डाकिनी प्रकृति की स्थायी शक्ति है जिसकी साधना प्रकृति भिन्न होती है किन्तु गुण-भाव समान ही होते हैं ।
इसमें अनेक मतान्तर हैं कि डाकिनी की स्वतंत्र साधना पर काली से सम्बंधित डाकिनी का आगमन होता है अथवा प्रकृति की डाकिनी का ,क्योंकि प्रकृति भी तो काली के ही अंतर्गत आती है ।वस्तुस्थिति कुछ भी हो किन्तु डाकिनी एक प्रबल शक्ति होती है और यह इतनी सक्षम है कि सिद्ध होने पर व्यक्ति की भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही आवश्यकताएं पूर्ण कर सकती है तथा साधना में सहायक होकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है ।

जन्म से मृत्यु तक मौजूद सातवीं महाविद्या धूमावती

वे महाप्रलय के समय मौज़ूद रहती हैं. उनका रंग महाप्रलय के बादलों जैसा है. जब ब्रह्मांड की उम्र ख़त्‍म हो जाती है, काल ख़त्म हो जाता है और स्वयं धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यूँ मानते हैं” ?महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं, माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं और काल तथा अंतरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं. उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चाँद , सितारे रहते हैं. रहता है सिर्फ़ धुआँ और राख- वही चरम ज्ञान है, निराकार- न अच्छा. न बुरा; न शुद्ध, न अशुद्ध; न शुभ, न अशुभ- धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती. वे अकेली रह जाती हैं, सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं. इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं.

यही उनका रहस्य है. वे दरअसल वास्तविकता को जताती हैं जो कड़वी,रूखी और इसलिए अशुभ लगती हैं. लेकिन वहीं से अध्यात्मिक ज्ञान जागता है जो हमें मोक्ष दिलाता है. माँ धूमावती अपने साधक को सारे सांसारिक बंधनों से आज़ाद करती हैं. सांसारिक मोह -माया से विरक्ति दिलाती हैं. यही विरक्त भाव उनके साधकों को अन्य लोगों से अलग-थलग और एकांतवास करने को प्रेरित करता है.

हिंदू धर्म में इसे अध्यात्मिक खोज की चरम स्थिति कहा जाता है. संन्यासी लोग परम संतुष्ट जीव होते हैं-जो भी मिला खा लिया, पहन लिया, जहाँ भी ठहरने को मिला, ठहर लिये. तभी तो धूमावती धुएँ के रूप में हैं-हमेशा अस्थिर, गतिशील और बेचैन. उनका साधक भी बेचैन रहता है.

उन्हें अशुभ माना जाता है क्योंकि बहुधा सच वह नही होता, जैसा कि हम चाहते हैं. वस्तुत: हम एक काल्पनिक संसार में जीते हैं, जिसमें सारी चीज़ें, सारी बातें, सारी घटनायें हमारे मनमाफ़िक होती हैं. जब वैसा नहीं होता, हम दुखी हो जाते हैं. क्योंकि हमारे लिए सब कुछ अच्छा हो एक मायालोक रचता है, जो हमें काम, क्रोध, मद, लोभ और ईर्ष्या के पाश में बाँध देता है. माँ धूमावती बड़े बेदर्दी और रूखेपन से उन पाशों को फाड़ देती हैं और साधक अकेला रहना पसंद करने लगता है. वे तांत्रिक जो धूमावती का रहस्यवाद नहीं समझते शादीशुदा लोगों के लिए धूमावती-साधना करने से मना करते हैं, सधवाओं को भी मना करते हैं.

किंतु वे भूल जाते हैं कि धूमावती सहस्रनाम में यह भी कहा गया है कि वे महिलाओं के बीच निवास करती हैं और संतान प्राप्ति कराती हैं .

इसका क्या तात्पर्य है? वास्तव में वे सहज-सुलभ महाविद्या हैं. बच्चे की प्रसूति से लेकर मनुष्य की मृत्यु तक सिर्फ़ वही खड़ी रहती हैं. उनकी मूर्ति में भी उन्हें हमेशा वरदान देने की मुद्रा में दिखाया जाता है. हालाँकि. उनके चेहरे पर उदासी छायी रहती है. वे महाविद्या तो हैं लेकिन उनका व्यवहार गाँव-टोले की दादी- माँ जैसा है-सभी के लिए मातृत्व से लबालब.

यानी उनका अशुभत्व शुभ की ओर बदलाव का संकेत है. उनके बारे में दो कहानियाँ प्रचलित हैं. आइये, उनके आलोक में हम उनके दैविक व्यक्तित्व की जानकारी लें.

पहली कहानी तो यह है कि जब सती ने पिता के यज्ञ में स्वेच्छा से स्वयं को जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला, उससे धूमावती का जन्म हुआ. इसीलिए वे हमेशा उदास रहती हैं. यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का भौतिक स्वरूप है. सती का जो कुछ बचा रहा- उदास धुआँ.

दूसरी कहानी यह है कि एक बार सती शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थीं. तभी उन्हें ज़ोरों की भूख लगी. उन्होंने शिव से कहा-” मुझे भूख लगी है. मेरे लिए भोजन का प्रबंध करें.” शिव ने कहा-” अभी कोई प्रबंध नहीं हो सकता.” तब सती ने कहा-” ठीक है, मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ.” और वे शिव को ही निगल गयीं. शिव, जो इस जगत के सर्जक हैं, परिपालक हैं.

फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि’ मुझे बाहर निकालो’, तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया. निकालने के बाद शिव ने उन्हें शाप दिया कि ‘ अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी.’

तभी से वे विधवा हैं-अभिशप्त और परित्यक्त.भूख लगना और पति को निगल जाना सांकेतिक है. यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है, जो कभी ख़त्म नही होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है. माँ धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं.

उनका विधवापन वास्तव में स्थितप्रज्ञता है.

कहानी में क्या होता है? पहले तो वे शिव को खा जाती हैं. यानी आत्मरक्षा के लिए वे किसी भी हद तक जा सकती हैं. लेकिन दूसरी ओर वे शिव का शाप भी सहर्ष स्वीकार कर लेती हैं. यानी प्रकृति के, सृष्टि के नियमों को स्वीकार कर लेना चाहिए. स्थितप्रज्ञता अकर्मण्यता नहीं है.

इसलिए माँ धूमावती रोग, शोक आौर दुख की नियंत्रक महाविद्या मानी जाती हैं. वे काफ़ी शक्तिशाली और प्रभावशाली हैं. उनके मंदिर बहुत कम हैं. बनारस के धूमावती मंदिर में लोगों का ताँता लगा रहता है जो अपनी हर प्रकार की मन्नतें पूरी करने के लिए उनके पास गुहार लगाने आते हैं.

वे प्रसन्न होती हैं तो रोगों को दूर कर देती हैं और क्रुद्ध होती हैं तो समस्त सुखों और कामनाओं का नाश कर देती हैं. उनकी शरण में गये लोगों की विपत्ति दूर हो जाती है, वे संपन्न होकर दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं. ऋग्वेद के रात्रि सूक्त में उन्हें सुतरा कहा गया है-सुखपूर्वक तरने योग्य. ऋण, अभाव और संकट दूर कर धन और सुख देने के कारण उन्हें ‘भूति’‘ कहा गया है.-उष ऋणेक यातय(ऋग्वेद,१०.१२७.७).

धूमावती साधना

तंत्रोक्त धूमावती मंत्र साधना.

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |

सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||

“हे आदि शक्ति धूम्र रूपा माँ धूमावती आप पूर्णता के साथ सुमेधा और सत्य के युग्म मार्ग द्वारा साधक को सौभाग्य का दान करके सर्वदा अपनी असीम करुणा और ममता का परिचय देती हो….

आपके श्री चरणों में मेरा नमस्कार है |”

धूम्रासपर्या कल्प पद्धति” से उद्धृत इस श्लोक से ही माँ धूमावती की असीमता और विराटता को हम सहज ही समझ सकते हैं.बहुधा साधक जब जिज्ञासु की अवस्था में होता है तब वो भ्रांतियों का शिकार होता है,अब ऐसे में या तो वो मार्ग से भटककर पतित हो जाता है,या फिर सद्गुरु के श्री चरण कमलों का आश्रय लेकर सत्य से ना सिर्फ परिचित हो जाता है अपितु उस पर निर्बाध गति करते हुए अपने अभीष्ट लक्ष्य को भी प्राप्त कर लेता है

माँ धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यों मानते हैं” ?

माँ का कोई भी रूप अहितकर होता ही नहीं है . महोदधि तन्त्र में कहा जाता है कि हर प्रकार की दरिद्रता का नाश करने के लिए ,तन्त्र मंत्र , जादू टोना , बुरी नजर , भूत,प्रेत , सभी का शमन करने के लिए ,भय से मुक्ति के लिए , सभी रोग शोक समाप्ति के लिए , अभय प्राप्ति के लिए , जीवन की सुरक्षा के लिए , बाधा मुक्ति , शत्रु को जड़- मूल से समाप्त करने के लिए धूमावती साधना वरदान है.

देवी धूमावती के बारे में कहा जाता है कि वे जन्म से ले कर मृत्यु तक साधक की देख भाल करने वाली महाविद्या है. वेदों के काल की विवेचना से पता चलता है कि महा प्रलय काल के समय वे मौजूद रहती हैं .उन का रंग महप्रलय काल के बादलों जैसा ही है .जब ब्रह्मांड की उम्र ख़त्म हो जाती है , काल समाप्त हो जाता है और स्वयं महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं ,तब भी माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं,और काल और अन्तरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं.

उस समय न तो धरती, न ही सूरज , चाँद , सितारे , रहते हैं। रहता है तो सिर्फ धुआं और राख, – वही चार्म ज्ञान है .निराकार – न अच्छा , न बुरा , न शुद्ध , न अशुद्ध , न शुभ , न ही अशुभ धुएं के रूप में अकेली माँ धूमावती रह जाती है . सभी उन का साथ छोड़ जाते हैं , इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले इन्हें अशुभ मानते हैं.

धूमावती रहस्य तंत्र

यही उन का रहस्य है कि वो वास्तविकता को दिखाती हैं जो सदैव कड़वी और रुखी होती है इसलिए अशुभ लगती है .वे अपने साधकों को सांसारिक बन्धनों से आज़ाद करती हैं , सांसारिक मोह माया से मुक्ति दिलाती हैं.

ये विरक्ति दिलाती हैं , जिस से यह विरक्ति का भाव उन के साधकों को अन्य लोगों से अलग थलग रखता है .वे एकांतवास करने को प्रेरित करती हैं.

महाविद्याओं का कोई भी रूप…फिर वो चाहे महाकाली हों,तारा हों या कमला हों…अपने आप में पूर्ण होता है .ये सभी उसी परा शक्ति आद्यशक्ति के ही तो विभिन्न रूप हैं.जब वो स्वयं अपनी कल्पना मात्र से इस सृष्टि का सृजन,पालन और संहार कर सकती हैं तो उसी परम पूर्ण के ये महाविद्या रुपी रूप कैसे अपूर्ण होंगे .इनमें भी तो निश्चित ही वही विशिष्टता होंगी ही .

महाविद्याओं के पृथक पृथक १० रूपों को उनके जिन गुणों के कारण पूजा जाता है ,वास्तव में वो उन्हें सामान्य ना होने देने की गुप्तता ही है,जो पुरातन काल से सिद्धों और साधकों की परंपरा में चलती चली आ रही है .

जब कोई साधक गुरु के संरक्षण में पूर्ण समर्पण के साथ साधना के लिए जाता है तो परीक्षा के बाद उसे इन शक्तियों की ब्रह्माण्डीयता से परिचित कराया जाता है . और तब सभी कुंजियाँ उसके हाथ में सौंप दी जाती हैं और तभी उसे ज्ञात होता है कि सभी महाविद्याएं सर्व गुणों से परिपूर्ण हैं और वे अपने साधक को सब कुछ देने का सामर्थ्य रखती हैं .

अर्थात् यदि माँ कमला धन प्रदान करने वाली शक्ति के रूप में साध्य हैं तो उनके कई गोपनीय रूप शत्रु मर्दन और ज्ञान से आपूरित करने वाले भी हैं . अब ये तो गुरु पर निर्भर करता है कि वो कब इन तथ्यों को अपने शिष्य को सौंपता है और ये शिष्य पर है कि वो अपने समर्पण से कैसे सद्गुरु के ह्रदय को जीतकर उनसे इन कुंजियों को प्राप्त करता है .

वास्तव में सत,रज और तम गुणों से युक्त ध्यान, दिशा, वस्त्र, काल और विधि पर ही उस शक्तियों के गुण परिवर्तन की क्रिया आधारित होती है .

किसी भी महाविद्या को पूर्ण रूप से सिद्ध कर लेने के लिए साधक को एक अलग ही जीवन चर्या,आहार विहार और खान-पान का आश्रय लेना पड़ता है….किन्तु जहाँ मात्र उनकी कृपा प्राप्त करनी हो तो ये नियम थोड़े सरल हो जाते हैं और ये हम सब जानते हैं कि विगलित कंठ से माँ को पुकारने पर वे आती ही हैं .

माँ धूमावती के साथ भी ऐसा ही है,जन सामान्य या सामान्य साधक उन्हें मात्र अलक्ष्मी और विनाश की देवी ही मानते हैं .

किन्तु जिनकी प्रज्ञा का जागरण हुआ हो वे जानते हैं कि आखिर इस महाविद्या का बाह्य परिवेश यदि इतना वृद्ध बनाया गया है तो क्या वो वृद्ध दादी या नानी माँ का परिवेश उन्हीं जैसी वात्सल्यता से युक्त नहीं होगा ?

धूमावती सौभाग्यदात्री कल्प एक ऐसा ही प्रयोग है जिसे मात्र धूमावती दिवस,जयंती या किसी भी रविवार को एक दिन करने पर ही न सिर्फ जीवन में पूर्ण अनुकूलता प्राप्त हो जाती है अपितु शत्रुओं से मुक्ति,आर्थिक उन्नति,कार्य क्षेत्र में सफलता, प्रभावकारी व्यक्तित्व और कुण्डलिनी जागरण जैसे लाभ भी प्राप्त होते हैं .

विनाश और संहार के कथनों से परे इन गुणों को भी हम इन्हीं की साधना से स्पष्ट रूप से देख सकते हैं .

यह साधना रात्रि में ही १० बजे के बाद की जाती है . स्नान कर बगैर तौलिए से शरीर पोंछे या तो वैसे ही शरीर को सुखा लिया जाये या धोती के ऊपर धारण किये जाने वाले अंग वस्त्र से हलके हल्के शरीर सुखा लिया जाये और साधना के निमित्त सफ़ेद वस्त्र या बहुत हल्का पीला वस्त्र धारण कर लिया जाये .

ऊपर का अंगवस्त्र भी सफ़ेद या हल्का पीला ही होगा.धोती और अंगवस्त्र के अतिरिक्त किसी अंतर्वस्त्र का प्रयोग नहीं किया जाये .साधक-साधिका दोनों के लिए यही नियम है .महिलाएं साड़ी के रंग का ही ब्लाउज पहन सकती हैं .

आसन सफ़ेद होगा.. दिशा दक्षिण होगी . गुरु और गणपति पूजन के बाद एक पृथक बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर एक लोहे या स्टील के पात्र में “धूं” का अंकन काजल से करके उसके ऊपर एक सुपारी स्थापित कर दी जाये और हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मंत्र का ११ बार उच्चारण करे –

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |

सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||

इसके बाद उस सुपारी को माँ धूमावती का रूप मानते हुए,अक्षत,काजल,भस्म,काली मिर्च और तेल के दीपक से और उबाली हुई उड़द और फल का नैवेद्य द्वारा उनका पूजन करे. तत्पश्चात उस पात्र के दाहिने अर्थात अपने बायीं और एक मिटटी या लोहे का छोटा पात्र स्थापित कर उसमें सफ़ेद तिलों की ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक दूसरी सुपारी स्थापित करे,और निम्न ध्यान मंत्र का पांच बार उच्चारण करते हुए माँ धूमावती के भैरव अघोर रुद्र का ध्यान करे –

त्रिपाद हस्त नयनं नीलांजनं चयोपमं,

शूलासि सूची हस्तं च घोर दंष्ट्राटट् हासिनम् ||

और उस सुपारी का पूजन,तिल,अक्षत,धूप-दीप तथा गुड़ से करे तथा काले तिल डालते हुए ‘ॐ अघोर रुद्राय नमः’ मंत्र का २१ बार उच्चारण करे .इसके बाद बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से निम्न मंत्र का पांच बार उच्चारण करते हुए पूरे शरीर पर छिड़कें –

धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी |

ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ||

कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके |

सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ||

सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः |

सौभाग्यमयतं प्राप्य जाते देवितुरं ययौ ||

इसके बाद जिस थाली में माँ धूमावती की स्थापना की थी,उस सुपारी को अक्षत और काली मिर्च मिलकर निम्न मंत्र की आवृत्ति ११ बार कीजिये. अर्थात क्रम से हर मंत्र ११-११ बार बोलते हुए अक्षत मिश्रित काली मिर्च डालते रहें .

भद्रकाल्यै नमः

ॐ महाकाल्यै नमः

ॐ डमरूवाद्यकारिणीदेव्यै नमः

ॐ स्फारितनयनादेव्यै नमः

ॐ कटंकितहासिन्यै नमः

ॐ धूमावत्यै नमः

ॐ जगतकर्त्री नमः

ॐ शूर्पहस्तायै नमः

इसके बाद निम्न मंत्र का जप रुद्राक्ष माला से २१,५१ , १२५ माला करें, यथासंभव एक बार में ही ये जप हो सके तो अतिउत्तम,अब मंत्र जाप प्रारंभ करे.

मंत्र:-

ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट् ||

OM DHOOM DHOOM DHOOMAVATI PHAT ||

मंत्र जप के बाद मिटटी या लोहे के हवन कुंड में लकड़ी जलाकर १०८ बार घी तथा काली मिर्च के द्वारा आहुति डाल दें .आहुति के दौरान ही आपको आपके आस पास एक तीव्रता का अनुभव हो सकता है और पूर्णाहुति के साथ अचानक मानो सब कुछ शांत हो जाता है…

इसके बाद आप पुनः स्नान कर ही सोने के लिए जाएं और दूसरे दिन सुबह आप सभी सामग्री को बाजोट पर बिछे वस्त्र के साथ ही विसर्जित कर दें और जप माला को कम से कम २४ घंटे नमक मिश्रित जल में डुबाकर रखें और फिर साफ़ जल से धोकर और उसका पूजन कर अन्य कार्यों में प्रयोग करें . इस प्रयोग को करने पर स्वयं ही अनुभव हो जाएगा कि आपने किया क्या है, और कैसे परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हो जाती है ये तो स्वयं अनुभव करने वाली बात है….

देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी तो देवी का कोई संगी नहीं है .

सारे विश्व में तंत्र को पहुँचाने की हमारी योजना

तंत्र विद्या का आविष्कार संपूर्ण मानवता की भलाई के लिए हुआ था. यह सरल और सुलभ है, इसलिए शुरू से ही इसके विरुद्ध भ्रामक प्रचार किया जाने लगा था. आज जो कुछ भी तंत्र के नाम पर जनता के सामने है वह वास्तव में तंत्र है ही नहीं. हमारा प्रयास है वास्तविक तंत्र विद्या से सर्व साधारण को परिचित कराना और उसके ज़रिये आम आदमी को सुखी और समृद्ध बनाना. यही हमारा मिशन है जिसमें हम हर तरह की दिक्कतों के बावज़ूद आगे बढ़ते जा रहे हैं.

Mobile:91-9811804096
Email: dushmahavidyaupasna@gmail.com

दश महाविद्याओं की स्तुति

अक्सर लोग महाविद्याओं की हिन्दी में स्तुति माँगते हैं ताकि वे समझ सकें.
एतदर्थ पंकज प्रसून ने प्रामाणिक स्रोतों के आधार पर स्तुतियाँ लिखी हैं,
जिन्हें हम सर्वसाधारण के लाभ के लिये यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं:

माँ काली
शव पर सवार
शमशान वासिनी भयंकरा
विकराल दन्तावली,त्रिनेत्रा
हाथ में लिये खडग
और कटा सिर
दिगम्बरा
अट्टहास करती माँ काली
जय माँ काली
मुक्तकेशी लपलपाती जिहवा वाली
दे रही अभय वरदान हमेशा
चार बाहों वाली
जय माँ काली
आओ करें हम ध्यान उनका
सृजन करनेवाली
सब कुछ देनेवाली
माँ काली
जय माँ काली
माँ तारा
शव के हृदय पर
बायें पैर को आगे
दायें पैर को पीछे
वीरासन मुद्रा में
करती भयानक अट्टहास
भव सागर पार करानेवाली
माँ तारा
जय जय माँ तारा
स्वयं भयंकरी, चतुर्भुजी, त्रिनयना
हाथों में कटार, कपाल, कमल और तलवार
उच्च महाशक्ति, महाविद्या
हुंकार बीज उत्पकन्न कुबेर स्वरूपा
विशाल स्वरूपा ,नील शरीरा
सर्प जटा, बाघम्बरा
भाल पर चंद्रमा
दुश्मनों को दंडित करने वाली
साधक को सब कुछ देने वाली
करते हेँ हम उन्हें प्रणाम
निशि दिन लें तारा का नाम
माँ षोडशी
पंचप्रेत महाशव सिंहासन
उस पर खिले कमल दल
लाल रंग की दीप्तिमान
चतुरहस्ता त्रिलोचना
मस्तक पर राजे चंद्रमा
रत्न आभूषण धारिणी
बाला, त्रिपुरसुन्दरी, ललिता
माँ षोडशी
हाथों से देती अभय मुद्रा, वर मुद्रा
धारण किये पुस्तक और अक्षमाला
पाश, अंकुश, वाण ,धनुष
धारण करनेवाली माँ ललिता
योग-भोग एक साथ दिलानेवाली
कामेश्वरी, वज्रेशवरी, भग़ मालिनी, ललिताम्बिका
माँ षोडशी
बरबस आकर्षित करनेवाली
हर काम को पूरा करनेवाली
सदा नमन करते हैं उनका
सर्व उपास्या, तुरीया,
माँ षोडशी
माँ भुवनेश्वरी
जगत जननी, मुस्कराती
जपा कुसुमवत रक्त वर्णा
चतुर्भुजा, त्रिनेत्रा
अभय और वर देने वाली
माँ भुवनेश्वरी !
माँ! जग में भरा घोर अंधेरा
हमें चाहिये अभय दान
माँ आप हैं त्रिभुवन की स्रष्टा
आप ही हैं सौभाग्यकारिणी
मान बचा दें आप हमारा
पूरी कर दें सभी कामना
हम करते आपकी वंदना
भूल हमारी कर दें माफ़
जग परिपालक
भुवनेश्वरी माँ !!
माँ छिन्नमस्ता
दिगम्बरा, द्विभुजा, पहने मुण्डमाला
बायें हाथ में लिये कटा सिर अपना
दायें हाथ में लिये कटार
माँ तेरी हो जय जयकार
कटा सिर अध्यात्म है
सिर कटा शरीर व्यवहार है
माँ निज शरीर की रक्त धारा
कटे सिर को पिला रही हैं
अपनी दो सहेलियों
डाकिनी और वर्णनी को
भी पिलाती रक्त अपना
माँ खडी हैं प्रत्यालीढ़ महासन पर
काम और रति के ऊपर
यह विरक्त भाव है
व्यवहार मिले अध्यात्म से
मां मन पर विजय दिलाती हैं
कुण्डलिनी को जगाती हैं
दिव्यानंद दिलाती हैं
साधक को योगी बनाती हैं
माँ भैरवी
सह्स्र सूर्य-सी दीप्तिमान
लाल वस्त्र पहने
रक्त रंजित ओष्ठ लाल
ग्रीवा में डाले मुण्डमाल
चतुर्भुजा माँ भैरवी
दो हाथों में पुस्तक-माला
दो हाथों से देती
वरदान
और विश्वास
कमल सरीखे तीन नयन हैं माँ के
सिर पर रत्न मुकुट और अर्ध चंद्र
शत्रु संहारिणी
शव सिंहासिनी
माँ भैरवी !
शत्रुओं से घिरे हम
न दीखता कोई रास्ता है
पाएँ कैसे हम छुटकारा
माँ आप ही कर दो ऐसी युक्ति
जिससे हमें मिल जाये मुक्ति
कोई नहीं हमारा है
माँ आप ही का सहारा है
दुख हर लो मेरा
त्राता, दाता
करो कृपा
माँ भैरवी !!
माँ धूमावती
धूसर रंग शरीर, महाचंचला ,दीर्घा
मलिन वस्त्र धारण किये
बाल खुले, हाथ में सूप लिये
भूखी, रूखी माँ धूमावती
रोग, शोक, दुख हरनेवाली
शत्रु के लिए प्रलयॅंकारी
तीन रूप दिन में धरती
सुबह सुन्दरी कुमारी
दोपहर में विकसित प्रौढा
शाम में बन जाती वृद्धा
तेरा रथ सारथी बिना
तेरे ध्वज पर कौआ बैठा
संकट हारिणी शत्रु संहारिणी
सर्व दुख हरणी माँ धूमावती
माँ बगलामुखी

रत्न जड़े मणि मंडप के नीचे
पीले सिंहासन पर विराजमान
पीली माला, पीताभरण, पीत परिधान
निशिदिन करूँ आपका ध्यान
बाँये हाथ से बैरी की जिह्वा पकड़े
दायें हाथ में मुदगर गदा लिये
तिमिर मिटा कर, ज्ञान बढ़ा कर
आप करें मुझ पर उपकार
बगलामुखी माँ
त्रिविध ताप मिटानेवाली
शत्रु-गति को रोकनेवाली
उसकी वाणी हरनेवाली
नित्य रूपा, मंत्र रूपा, सुनेत्रा ,
जगन्माता, चंडिका, पीताम्बरा
बगलामुखी माँ!!
माँ मातंगी
श्यामवर्णा, त्रिनयना
मस्तक पर चंद्रमा
चतुर्भुजा, दिव्यास्त्र लिये
रत्नाभूषण धारिणी
गजगामिनी ,महाचांडालनी
माँ मातंगी !
सर्व लोक वशकारिणी, महापिशाचिनी
कला, विद्या, ज्ञान प्रदायिनी
मतन्ग कन्या माँ मातंगी
हम साधक शुक जैसे हैं
ज्ञान दिला दो हमको माँ
हम करते तेरा ध्यान निरंतर
आपका हे माँ मातंगी!!
माँ कमला
कमल पुष्प पर बैठी
शांत और विहँसती
कनक कांति, ऐश्वर्य स्वरूपा
पद्मा, पद्मालया,
माँ कमला
चार भुजाएँ जिनमें
वर मुद्रा, कमल युगल, अभय मुद्रा
साधक को दें समस्त संपदा
माँ कमला!
हमअकिंचन
कैसे जियें सुख शांति से
हम आये आपकी शरण में
हम पर भी कर दो कृपा
माँ कमला!!